प्रारम्भिक जीवन


उनका नाम मूलशंकर रखा गया। आगे चलकर वे संस्कृत, वेद शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनायें हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में पूछने के लिए विवश कर दिया।उनके पिता जी शिव भक्त थे और वे चाहते थे कि मूल शंकर भी शैव परम्पराओं को निज जीवन में अपनाए। इस दृष्टि से उनकी दीक्षा आरंभ हुर्इ।


13 वर्ष की आयु में शिवरात्रि का महापर्व आया। तब वे बालक ही थे। बड़े समारोह-पूर्वक उसका आयोजन चल रहा था। शिवरात्रि का जागरण बहुत मंगलकारी माना जाता है।शिव-रात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि पूजा के लिए एक मन्दिर में ही रुका हुआ था। जागरण के दौरान अर्धरात्रि के समय भक्त जन तो प्राय: निद्रा में लीन हो चले थे | परंतु जिज्ञासु बालक मूलशंकर पूरी तरह जागते रहे थे , कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। । तभी मूषकगण शिव प्रतिमा पर उछल कूद करने लगे एवं प्रसाद मिठार्इयां कुतरने लगे। उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देखकर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे की जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की क्या रक्षा करेगा? मूलशंकर को अपने इष्टदेव के साथ मूषकों का उत्पात अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अपने निद्रालीन पिता जी को जगाया और मूषकों का उत्पात तथा प्रसाद एवं मिठार्इयों को जूठा करना दिखाया। पिता जी ने समझाया कि यह अनहोनी बात नहीं। ।महादेव भगवान शंकर कलियुग में कहां दर्शन देते हैं?

हमें निष्ठा एवं श्रद्धापूर्वक अपनी परम्पराओं का अनुसरण एवं पालन करते रहना चाहिए। सच्चे शिव तो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान हैं। इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।

विवेकशील मूलशंकर को अपने पिता जी की बातों से संतोष नहीं हुआ। उनका मूर्ति पूजा से मोह भंग हो चुका था। वह सीधे घर गए तथा माता जी से खाने के लिए कुछ मांगा और उपवास तोड़ दिया। आर्य समाज आज भी शिवरात्रि पर्व को महर्षि के बोधोत्सव के रूप में मनाता है।





अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (१९ वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे १८४६ में घर से भाग गए।

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

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